नेहरू ने पाकिस्तान को फ़ायदा पहुंचाने वाली सिंधु जल संधि पर दस्तख़त क्यों किए?
सिंधु जल संधि न केवल पाकिस्तान को सिंधु और उसकी सहायक नदियों के ज़्यादातर पानी का अधिकार देती है, बल्कि भारत पर कई तरह की पाबंदियां भी लगाती है

1960 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने पाकिस्तान के साथ सिंधु जल संधि पर हस्ताक्षर किए थे. इस संधि के तहत भारत ने सिंधु और उसकी सहायक नदियों — सतलज, चिनाब, व्यास, रावी और झेलम — के कुल जल का लगभग 75 प्रतिशत हिस्सा (यानी सिंधु, झेलम और चिनाब नदियों का जल) पाकिस्तान को सौंप दिया. इसके अलावा, भारत ने इस जल के उपयोग के लिए आवश्यक ढांचा खड़ा करने में भी पाकिस्तान की मदद की. इसके लिए उसने ‘इंडस वाटर डिवेलपमेंट फंड’ में 62 लाख पाउंड का योगदान दिया. इस फंड को अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड और विश्व बैंक के सहयोग से स्थापित किया गया था.
भारत से निकलने वाली नदियों को लेकर इतना असमान दिखने वाला यह समझौता नेहरू ने क्यों किया? विशेषज्ञों की राय और ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के आधार पर, इसका जवाब इन पांच बिंदुओं में तलाशा जा सकता है:
1️⃣ शीत युद्ध का दबाव
उस दौर में अमेरिका और ब्रिटेन, पाकिस्तान को सोवियत प्रभाव से बचाकर अपना रणनीतिक साझेदार बनाने में जुटे थे. भारत उनकी प्राथमिकताओं में नहीं था. अमेरिका और ब्रिटेन के दबाव में वर्ल्ड बैंक भी भारत-पाकिस्तान के बीच इस विवाद में निष्पक्ष नहीं था और पश्चिम के रणनीतिक हितों के मुताबिक काम कर रहा था. ऐसे में भारत पर सिंधु जल संधि पर दस्तख़त करने और पाकिस्तान के साथ लंबे जल विवाद से बचने का जबरदस्त दबाव था.
शायद नेहरू, इस बात से भी प्रभावित हुए हों कि चीन के साथ लगातार बिगड़ते संबंधों के उस दौर में जनरल अयूब खान ने हमारे साथ रक्षा सहयोग करने की पेशकश की थी. लेकिन उनका यह प्रस्ताव भारत की सुरक्षा को लेकर नहीं था. पाकिस्तान उस समय SEATO और CENTO जैसे सैन्य गठबंधनों का हिस्सा था, जो साम्यवाद और साम्यवादी देशों का मुकाबला करने के लिए बनाए गये थे.
2️⃣ अंतरराष्ट्रीय अलगाव का डर
अगर भारत यह संधि ठुकरा देता तो उसे पश्चिमी देशों की नज़र में एक हठी और टकराव पसंद देश माना जा सकता था. इससे न केवल भारत के अंतरराष्ट्रीय रिश्ते प्रभावित होते बल्कि विश्व बैंक और अन्य अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से मिलने वाली वित्तीय मदद और कर्ज़ भी रुक सकते थे. विभाजन के बाद की कमजोर अर्थव्यवस्था वाले नए देश के रूप में भारत उस वक़्त ऐसा कूटनीतिक और आर्थिक अलगाव झेलने की स्थिति में नहीं था.